अंतिम सीख (भाग 1) ❤❤❤❤
पिछले छह महीनो से राधा जैसे स्वप्नलोक में ही विचर रही थी। विवाह को छह माह हो चुके थे और राधा और रतन अभी प्रेम-पगे परिवेश में, स्वच्छंद, युगल प्रेमी सा ही जीवन जी रहे थे।
छोटे से कसबे ‘बिजौली’ का कुशाग्र बुद्धि का रतन इंजीनियर बन गया था। नौकरी लगते ही लड़की वालों का जुटना शुरू हो गया था। घरवालों ने खूब देख-भाल कर ही रतन के लिए राधा को पसंद किया था। राधा ने BA किया हुआ था। घर-परिवार भी अच्छा था और रतन को भी सुभग-सुरूपा राधा का भोलापन भा गया था। 'शहर जाकर रहेगी तो वहां के तौर-तरीके तो मैं सिखा ही दूंगा इसे' रतन ने मन ही मन सोच विचार कर लिया था। अम्माजी, बाबूजी और बाकी सारा परिवार यानि बड़े भैया, भाभी और उनके दो नन्हे-मुन्ने - चिंटू और मिन्की - ‘बिजौली’ वाले अपने पुश्तैनी घर में ही रहते थे और रतन की पोस्टिंग, इस बड़े से महानगर में हुई थी।
खासे दिमाग वाला लड़का था रतन। अच्छी समझ-बूझ रखता था। यह भी समझता था कि भोली-भाली राधा कभी किसी बड़े शहर में नहीं रही है, अतः शहर की लड़कियों वाली चतुरता और स्मार्टनेस में ही थोड़ी कम थी, बाक़ी तो समझदार थी। अपनी सुंदरी, नवोढ़ा सहचरी को रतन वैसे ही सम्हाले रहता जैसे कोई कृपण साहूकार अपने धन को सम्हाले रहता है। राधा को कहीं बाहर जाना हो, रतन हाज़िर है, बाजार का काम हो, रतन हाज़िर, पिक्चर देखने का मन हो रतन हाज़िर। उसे दरवाज़ा अंदर से अच्छी तरह से बंद करने की, अकेले कहीं बाहर न जाने की और बिना देखे दरवाज़ा न खोलने की, ढेर सारी हिदायतें देकर ही रोज़ ऑफिस के लिए निकलता था रतन।
निष्कपट, निश्छल राधा को माँ ने भी यही सीख दी थी कि कभी ससुराल से या रतन से राधा की कोई शिकायत नहीं मिलनी चाहिए। पति का हर तरह से ध्यान रखना, उसकी हर इच्छा पूरी करना, यही उसका नैतिक कर्तव्य है और इसी सीख की छाँव तले, रतन की हर नसीहत का अक्षरशः पालन करना राधा का जैसे परम कर्तव्य बन गया था।
रतन के अलावा, इस महानगर में राधा की अगर किसी से जान-पहचान थी, तो वह, रिया से थी । रिया रतन के सामने वाले फ्लैट में रहती थी। एक दिन जब राधा घर में बोर होकर अपनी बालकनी में खड़ी थी, तो सामने वाले फ्लैट की बालकनी में उसे एक सुन्दर सी औरत दिखाई दी थी। दोनों फ्लैट्स के बीच, बस एक अंदर वाली पतली सी सड़क का ही फासला था और दोनों की बालकनियां आमने-सामने खुलती थीं। । वह औरत राधा को देख कर मुस्कुराई तो प्रत्युत्तर में राधा भी मुस्कुरा दी थी। बस, इसी के बाद से ही दोनों की जान-पहचान हो गयी थी, जो शीघ्र ही घनिष्ठ दोस्ती की परिधि में आ गयी थी।
रिया की रात की शिफ्ट होती थी। वह अलस्सुबह घर आकर सो जाती थी। उस बीच राधा अपने घर के काम-धाम निपटा लेती थी। फिर दोपहर बाद, जब रिया उठ जाती थी, तब राधा अक्सर उसके पास चली जाती थी, फिर दोनों गप्पें मारा करते थे। बातों –ही-बातों में रिया राधा को बहुत कुछ सिखाती भी रहती थी। बड़े शहरों के तौर तरीके, अपने को कैसे कैरी करना चाहिए, कुछ भी करते समय ऐसे ही कुछ भी नहीं कर देना चाहिए, दिमाग लगा कर, आगा-पीछा सोच-समझ कर करना चाहिए, आदि आदि । उसकी दी हुई सीखें राधा के काम भी आती थीं। राधा की हर बात की राज़दार थी, उसकी रिया दी।
रतन को ऑफिस के लिए टिफ़िन देने के साथ ही राधा अपने लिए भी दो फुलके सेंक लेती। उसके बाद राधा नहा-धो कर, अपनी पूजा-पाठ निबटा कर सारा दिन ख़ाली रहती। रतन वापस आता देर शाम को। अब राधा सारे दिन करे भी तो क्या ? हालांकि इस बार तो एक काम है उसके पास। उसका मनपसंद काम । अम्माजी ने उसे मुंहदिखाई में जो अपना ख़ानदानी नवरतन का जड़ाऊ गले का हार दिया है, उसे वह इस बार अम्माजी से मान-मनुहार कर करके यहाँ ले आयी है। बस, उसे ही पहन-पहन कर दर्पण में अपनी छवि निहारा करती है।
खूबसूरती में बेजोड़ था वह नौरतन का जड़ाऊ हार। स्वर्ण के कलात्मक फूल-पत्तियों के बेलबूटे उकेर कर, उनमें नन्ही-नन्ही, घुमावदार कलिकाओं के बीच-बीच में माणिक, मूंगा, पन्ने और सभी नव-रतन सुगढ़ता से जड़े गए थे। हर फूल के नीचे एक रक्तिम मूंगा में, सफ़ेद छोटे मोतियों की तीन छोटी-छोटी लड़ें थीं और सबसे नीचे एक हरा अंडाकार पन्ना, अपने किनारे पर एक तिन्ने से स्वर्ण के मोती को चिपकाए झूल रहा था, जिस पर आँखें स्वतः ही ठहर जाती थीं। स्वर्ण और नवरत्नों के मनोहारी समन्वय से, वास्तव में अद्भुत कलाकारी की थी शिल्पकार ने।
एक दिन राधा ने रतन को भी वह हार पहन कर दिखाया था। नवोढ़ा पत्नी की श्वेत हंसिनी सी ग्रीवा पर सजा, वह जड़ाऊ हार देख, रतन की भी आखें चौंधिया गयी थीं। राधा की उस अनुपम छवि पर मुग्ध हो उठा था रतन। किसी भी शहरी रूपसी मॉडल को ज़ोरदार टक्कर देने की क्षमता उसकी सहचरी रखती थी। हुलस कर बोल उठा था, "राधा तुम देखना, कुछ समय बाद मैं तुम्हारे लिए इससे मैचिंग कान के झाले भी बनवा दूंगा", बस, इसके बाद से राधा का दिल बल्लियों उछलने लगा था। अब उस दिन की प्रतीक्षा थी, जब उसके पास इस हार से मैचिंग कान के झाले भी होंगे।
रतन इस बार काफी सतर्क था। गाँव में माँ, बाबूजी, भैया ने भी यही ताकीद की थी कि इतने महंगे ज़ेवरों को घर में रखना ठीक नहीं है। महानगर का मामला है। चोरी-चकारी का बड़ा डर है। खासकर, हार तो अम्माजी अभी भेजना ही नहीं चाह रही थीं। उनका कहना था कि कुछ समय बाद, जब रतन और राधा वहाँ लॉकर ले लें, तब ही हार यहाँ से ले जाएँ। पर राधा का इतना अधिक मन था कि अम्माजी ने उसे कई नसीहतें देकर, हार ले जाने दिया था।
बिजौली से वापस आकर, बिना देरी किये, रतन ने बैंक में लॉकर के लिए एप्लिकेशन देदी थी। लॉकर मिलने की प्रक्रिया पूर्ण होते-होते थोड़ा समय लगा था। इस बीच राधा प्रसन्न थी। हार और बाकी ज़ेवर तब तक उसके पास ही रहेंगे। अपने प्राणो से भी प्यारी वस्तु की तरह सहेज कर रखती थी वह अपने सारे ज़ेवरों को। पर नित्य ही एक बार उस हार को अपने गले में डालने का लोभ वह संवरण नहीं कर पाती थी। अब राधा सुबह नहाने-धोने, पूजा-पाठ आदि करने के पश्चात वह हार पहन लेती, दर्पण में खुद को निहारा करती और जैसा रतन ने समझाया था, जब कभी घंटी वगैरह बजती, या कोई आता, तो हार को अंदर सहेज कर ही दरवाज़ा खोलती। न ही इस विषय में किसी से बात ही करती थी। बस, इतना भर हुआ था की एक दो बार वह ज़रुरत पड़ने पर, उस हार को पहने पहने बालकनी में ज़रूर चली गयी थी।
सामने वाली बालकनी में रिया दी खड़ी थी। उन्होंने हार को देख हाथ से ‘बहुत सुन्दर है ’ का इशारा किया। राधा मुस्कुरा उठी। रिया दी उसका हार देखने घर आईं। राधा ने उन्हें हार दिखाया। हार देख रिया की आँखों में चमक आ गयी । बोली, “अरे वाह, ऐसी डिज़ाइन तो अब बनती ही नहीं है राधा। तू बहुत किस्मत वाली है”। रिया ने हार की, उसकी कलात्मकता की भूरि-भूरि प्रशंसा की। बातें करते-करते राधा ने उन्हें बताया कि रतन ने किसी को भी इस हार के विषय में बताने को मना किया है।
बैंक से रतन के पास सूचना आयी कि लॉकर उपलब्ध है। सूचना पाते ही दोपहर के खाने की छुट्टी में रतन घर आ गया। बस, एक जोड़ी झुमकी घर पर रोक कर रतन और राधा बाक़ी सारा ज़ेवर लेकर लॉकर में रखने चले गए थे। राधा का दिल बहुत उदास था। इतना सुन्दर नवरतन का जड़ाऊ हार अब भला वह कब पहन पाएगी। ज़ेवर क्या लॉकर में रखने के लिए होते हैं? अगर किसी को उसके जेवर पहनने को ही न मिलें तो भला उनके होने का फायदा ही क्या। सारे चोर-उचक्कों को भी मन-ही-मन न जाने कितनी गालियाँ दे डालीं राधा ने। ऐसा लग रहा था जैसे रतन हार नहीं, राधा का दिल ही लॉकर में रखने जा रहा था। जैसे-जैसे बैंक नज़दीक आता जा रहा था, राधा का मन बुझता जा रहा था।
रतन का स्कूटर बैंक पहुँच कर रुका तो राधा ने एक अंतिम प्रयास किया, "सुनिए न, अगर नवरतन वाला हार लॉकर में न रखें तो"? एक हार के घर में रहने से क्या ही हो जाएगा। मैं सम्हाल कर रखूंगी, सच्ची"।
रतन को अपनी गऊ सी सहचरी पर अधिक भरोसा नहीं था। समझाते हुए बोला, "समझती नहीं हो तुम। हमारी पूरी फ्लोर ख़ाली रहेगी होली में। सब जा रहे हैं। सेफ नहीं है इसे इस समय घर में रखना। मैं बैंक से निकाल ले आऊंगा न, जब हम बिजौली से वापस आएंगे", राधा मन मसोस कर रह गयी। रतन बात तो सही कह रहा था।
जितने दुःख के साथ, कोई माँ मजबूरी में अपने दुधमुँहे शिशु को अपने से अलग कर किसी दूसरे के पास छोड़ती होगी, उतने ही दुःख के साथ राधा ने अपनी जान से प्यारे हार को लॉकर में रखवा दिया। इस पूरे समय राधा के कानो में, बराबर उसकी रिया दी की ही बातें गूंजती रही थीं कि "औरतों को भी अधिकार है कि वे अपने मन से काम करें। यह पुरुषों को ग़लतफहमी है कि औरत अपने लिए सही निर्णय नहीं ले पाएगी। तुम्हे भी धीरे-धीरे सीखना चाहिए राधा, कि अपने लिए स्वयं सही और गलत का निर्णय लो"।
ज़ेवर लॉकर में रखे जा चुके थे। उसी समय असावधानीवश एक छोटी अंगूठी नीचे गिर पड़ी थी। रतन उसे उठाने नीचे झुका। रतन झुक कर अंगूठी ढूंढने लगा और विनाशकाले विपरीत बुद्धि। रतन से कभी कुछ भी न छुपाने वाली राधा ने, बिजली की गति से हार को पुनः लॉकर से बाहर खींच लिया था। रतन के सिर ऊपर उठा कर खड़े होने के पूर्व ही वह करामाती हार राधा के पर्स की किसी जेब की गहरी गुफा में विलुप्त हो चुका था।
रतन ने अंगूठी वापस अंदर रख, बैंक की चाभी से लॉकर बंद किया। खींच कर देखा, नहीं खुल रहा था। संतुष्ट हो, एक बड़ा सा ताला और लगाया। उसे भी दो बार खींच कर चेक किया। दोनों ताले भली प्रकार अपने कर्तव्य क्षेत्र में आ डटे थे। रतन ने मुस्कुरा कर राधा की ओर देखा । चलने से पहले, एक बार फिर,अपने लॉकर के बाहर मुस्तैदी से लटक रहे प्रहरी को थपथपा कर, जैसे उसे उसके कर्तव्य-पथ का पुनः स्मरण कराता हुआ बाहर आ गया।
चार दिन बाद ही दोनों की बिजौली की ट्रेन थी। इस बीच दोनों सबके लिए उपहार आदि खरीदने में, अपनी पैकिंग करने में व्यस्त रहे। आज रतन राधा को बोल कर ऑफिस गया है कि वह ऑफिस से जल्दी आ जाएगा। राधा रास्ते के लिए खाना पैक करके, जूठे बर्तन माँज कर, रसोई साफ़ करके तैयार रहे। आते ही वे लोग स्टेशन के लिए निकल जाएंगे और खाना भी ट्रेन में ही खा लेंगे।
आज सारे दिन राधा के पास बहुत अधिक काम है। सांस तक लेने की फुर्सत नहीं है उसे। फ्रिज में रखा खाने का सामान किसी न किसी को देकर निपटाना है। फ्रिज इतने दिन बंद पड़ा रहेगा तो उसकी भी ढंग से सफाई करनी होगी। सारे गंदे कपड़े धोकर सुखा लेने होंगे। छत पर रखे अचार के मर्तबान नीचे ले आने होंगे। कहीं कोई उसके पीछे गंदे हाथों निकाल कर जूठा न कर दे।
बिजौली के लिए राधा अपने हाथों से गुझिया भी बना कर ले जायेगी। थोड़ी मठरियां भी निकाल लेगी। वहां अम्माजी बाबूजी कितना खुश होते हैं कि राधा उनके लिए सब कुछ अपने हाथ से बना कर लाई है। जीजी, जीजाजी सब वहीं इकठ्ठा हो रहे हैं होली पर। बच्चे तो राधा के आगे-पीछे ही डोलते फिरते हैं। कितना मज़ा आएगा। इतना प्यार करने वाली ससुराल पाकर राधा गदगद थी। ससुराल मायके दोनों ही जगह सबसे मिलना हो जाएगा। जलतरंग सा बज रहा था राधा के मन में।
कपड़े उठाने के लिए कमरे में गयी तो आदतन दर्पण पर नज़र चली गयी। अचानक ध्यान आ गया अपने जड़ाऊ हार का। आँखों में नशा और अधरों पर मुस्कान छाने ही वाले थे कि एक दूसरे बेहद कष्टप्रद विचार ने अनअपेक्षित रूप से सिर उठा लिया, "पूरे सात दिनों के लिए उसका घर बंद रहेगा और वह जड़ाऊ हार घर में रखा है। उन दिनों इस फ्लोर पर चारों घरों में ताला होगा। हे भगवान्, इस तरह से तो उसने सोचा ही नहीं था"।
काँप उठी थी राधा। समझ रही थी कि उस समय उसकी मति मारी गयी थी जो उसने ऐसा मूर्खतापूर्ण क़दम उठा लिया था। रतन को भी नहीं बता सकती। वैसे भी, अब इस समय,अगर किसी तरह से रतन तक सूचना पहुंचा भी दे, तो भी, जब तक वह घर आकर, हार लेकर बैंक पहुंचेंगे, तब तक तो लॉकर ऑपरेट करने का समय ख़तम हो चुका होगा। बहुत तिकड़म लगाने के बाद भी आखिरी विकल्प यही बचा कि रतन को सब कुछ सच-सच बता दे और आज का टिकट कैंसिल करवा कर कल का ले लें। “हाँ, यही करेगी वह। रतन से सच्चे दिल से माफ़ी मांग लेगी। रतन का दिल बहुत बड़ा है। वह माफ़ भी कर देंगे राधा को”। अपने इस अंतिम निर्णय के पश्चात थोड़ी तसल्ली सी मिली राधा को।
रतन को फोन मिलाने जा ही रही थी कि तभी दिमाग ने उसे चेताया, रतन तो बता रहे थे बैंक भी अब चार दिन के लिए बंद रहेंगे। वह फिर अवश हो उठी थी, "हे भगवान्, क्या करूँ अब ? किससे मदद माँगूँ"? दोनों हाथों से सिर पकड़ लिया राधा ने। निढाल हो वहीं बैठ गयी। चोरी-चकारी के नाम से ही घबराहट होने लगी थी। अजीब दुविधा आन पड़ी थी। जितना सोचती, उतना ही उलझती जाती।
जाने किस अदृश्य शक्ति ने सुझाया कि हार अपने पर्स में छुपाकर बिजौली ही लिए चलते हैं। किसी को क्या पता चलेगा। पर अगले ही पल ध्यान आया कि भाभी का नटखट चिंटू रोकते-रोकते भी उसके बैग का सामान उलट-पुलट कर डालता है। पिछली बार भी, उसके बैग से नेल पॉलिश, लिपस्टिक, कंघी, सब निकाल कर बैठक में बीच वाली मेज़ पर बिखरा गया था। जेठजी, बाबूजी, रतन, सब वहीं बैठे थे और मंद-मंद मुस्कुराने लगे थे। वह तो शर्म से पानी-पानी हो गयी थी।
'नहीं, वहां ले जाना सही नहीं रहेगा'। कुछ समझ नहीं पा रही थी राधा। अपने इस लालच पूर्ण व्यवहार पर स्वयं ही लज्जित हो उठी थी वह। रिया दी की एक सीख यह भी थी कि जब मुश्किल वक़्त आये तो सोच-समझ कर ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिए। अंत में एक निर्णय ले लिया उसने। पर्स से हार निकाल कर उसे रुमाल में लपेट कर पोटली बनायी और तेज़ क़दमों से चल पड़ी थी रिया दी के घर।
रिया इस समय राधा को अपने घर आया देख चौंक गयी थी, "अरे, तुम्हारी तो आज रात की ट्रेन है। इस समय यहाँ कैसे"?
राधा ने न रिया के सवाल का जवाब दिया, न उसे कुछ और बोलने का मौका दिया। बस, उसके हाथ में अपनी पोटली पकड़ा कर बोली, "रिया दी, यह मेरा जड़ाऊ हार और झुमकियां हैं। इसे आपको अपने पास रखना है सात दिन के लिए। मैं घर से वापस आकर इसे आपसे ले लूंगी"।
"नहीं राधा, मैं यह नहीं रख सकती"। इतनी मूल्यवान चीज़ तुम अपने पास ही रखो। किसी को मत दो"।
" अरे, नहीं रिया दी, यह तो आपको रखना ही पड़ेगा। अभी मेरे पास बिलकुल टाइम नहीं है। वापस आकर आपसे मिलती हूँ"।
रिया पीछे से पुकारती ही रह गयी थी और राधा जल्दी-जल्दी घर वापस आकर काम निपटाने लगी थी। तनाव काफी कुछ हद्द तक कम हो चुका था अब।
#Radha
इस कहानी का पहला भाग यहीं तक …. जल्दी ही मिलेंगे इस कहानी का अगला भाग लेकर। आप सब स्वस्थ रहिये, खुश रहिये, धन्यवाद!
WRITTER: A A CHOUDHARY
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