अंतिम सीख (भाग 2)
कहानी के पहले भाग में आपने सुना कि रतन एक इंजीनियर लड़का है। जिसकी पोस्टिंग एक महानगर में है। रतन की अभी कुछ महीने पहले ही शादी हुई है। रतन के घरवाले और उसकी नयी-नवेली पत्नी राधा के घरवाले एक छोटे से कस्बेनुमा शहर बिजौली में रहते हैं। राधा भोलीभाली, सरल और निष्कपट है ।
राधा ने अपनी सरलता में, अपना मुंहदिखाई में मिला हुआ खानदानी जड़ाऊ हार अपनी शहर की सहेली रिया के पास रखवाया है और वह रतन के साथ होली मनाने, सात दिन के लिए रतन के संग अपनी ससुराल बिजौली आ गयी है….
अब आगे…..
होली खूब ज़ोरदार रही थी । रतन ने तो राधा को सुबह आँख खुलने के साथ ही रंग डाला था। राधा भी कम नहीं थी। भाभी के साथ मिलकर उसने भी रतन की खूब दुर्गति करी थी। फिर सबने मिलकर अम्मा बाबूजी तक को नहीं छोड़ा था। चिंटू और मिन्की तो पहचान में ही नहीं आ रहे थे।
बीच में एक बार रिया का फ़ोन आया था। राधा उससे बात करते हुए बाहर आ गयी थी, धीरे से बोली, "रिया दी, सुनो, वह हार वाली बात रतन के सामने मत करना, मैंने उन्हें नहीं बताया है। वह यही सोच रहे हैं की हार लॉकर में है"।
"क्या --------" रिया की चीख निकल गयी थी। "राधा, पागल हो गयी हो क्या तुम। हे भगवान् कैसे समझाऊँ तुम्हें? मैं अभी- ----"
पर राधा ने उसे बीच में ही रोक दिया था। "अरे दीदी, सुनो तो, मैं फोन रख रही हूँ, बाद में बात करते हैं, अभी सब यहीं बैठे हैं",
और इतना कह कर राधा ने फोन काट दिया था। रिया हतप्रभ रह गयी थी, 'इतनी बड़ी बेवकूफी कैसे कर सकती थी यह लड़की' ?
इस बीच राधा कुछ समय अपने मायके भी रह आयी थी। सबसे मिलकर दोनों तरोताज़ा हो गए थे। सातवें दिन वापसी थी। चलते समय सबके दिल भारी हो रहे थे। रास्ते में भी राधा रो रही थी। रतन उसे दिलासा देता रहा था कि हम जल्दी ही फिर से आएँगे।
गुदगुदी बर्थ पर राधा जल्दी ही सो गयी थी। सुबह आँख खुली तो फिर उसका दिल हिलोरें मार रहा था कि कब वह घर पहुंचे, कब रिया दी से अपना नौरतन का हार वापस ले और कब उसे अपने गले में पहने। ट्रैन में हिचकोले खाते हुए राधा एक प्यारे से दिवास्वप्न में उलझ गयी थी। खुली आँखों से वह देख रही थी कि उसने घर पहुँच कर रतन को ऑफिस के लिए रवाना कर दिया है। फिर वह स्वयं भी नहा-धोकर रिया दी के घर पहुँच गयी है। घंटी बजाते ही वह दरवाज़ा खोलती हैं। उसे देख कर वह खुश हो जाती हैं और उसे गले से लगा लेती हैं। देर तक दोनों सहेलियां हर्षातिरेक में गले लगी रहीं। रिया दी उससे बिजौली के हाल पूछती रहीं पर राधा तो अधीर हुई जा रही है अपने जड़ाऊ हार के लिए। उसके पास समय ही नहीं है उनकी बातों का जवाब देने का।
वह अधीरता से बोलती है, "अरे दी, सब बताऊंगी। पर अभी, पहले आप मेरी पोटली दे दो"।
"ओफ्फोह राधा, इतनी बेसब्र क्यों हुई जा रही है"?
कहते हुए रिया दी अपनी आलमारी खोल, उसकी पोटली निकालती हैं और उसे पकड़ाते हुए कहती हैं कि "यह ले, सम्हाल अपनी पोटली"।
पोटली देख, प्रसन्नता के आवेग में राधा रिया दी के बिस्तर पर ही पोटली खोल देती है और अपना जड़ाऊ हार उठा कर प्रेम से उसे छू छू कर देखने लगती है।
तभी रिया दी झुक कर रुमाल में से उसकी एक झुमकी उठा लेती हैं और अपने हाथों में छुपा, बनावटी भय के साथ कहती हैं "अरे राधा, इसमें से एक झुमकी तो कम है । अब क्या होगा"?
राधा जबरन उनकी मुट्ठी खोल, उसमे से झुमकी निकाल कर कहती है "कुछ नहीं होगा" और दोनों सहेलियाँ हँसने लगती हैं।
बेख्याली में राधा ट्रेन में भी हँसने लगती है। उसे हँसता देख रतन भी मुस्कुरा पड़ता है। उससे पूछता है "क्या हुआ ? क्या सोच कर हँस रही हो" ? राधा से कुछ जवाब नहीं देते बनता। वह शर्मा जाती है। आभासी दर्पण में, नौरतन का जड़ाऊ हार पहने, अपने उस सलोने प्रतिबिम्ब पर राधा मुग्ध थी। आज उसे ट्रेन ड्राइवर, ऑटो ड्राइवर, सब पर गुस्सा आ रहा था। सब कितना धीरे-धीरे चला रहे हैं आज। किसी तरह ऑटो घर पहुंचा। साथ लाई हुई पूरी-सब्जी लेकर ही रतन ऑफिस के लिए विदा हो गया। इसके बाद राधा स्वयं भी जल्दी से तैयार होकर पहुँच गयी रिया दी के घर।
रिया दी के घर की घंटी बजायी। दरवाज़ा नहीं खुला। हो सकता है नहाने गयी हों या सो रही हों। दोबारा बजायी। दरवाज़ा फिर भी नहीं खुला। हड़बड़ा कर एक दो बार और बजा दी। अभी भी कुछ हलचल नहीं हुई। सशंकित हो इधर-उधर देखा, नीचे नज़र गयी, 'अरे दरवाज़े पर तो बड़ा सा ताला जड़ा था। ‘कहाँ गयी होंगी रिया दी? इस समय तो वह घर पर ही होती हैं’।
कुछ सोच कर बग़ल वाले फ्लैट की घंटी दबा दी उसने।
"नमस्ते आंटी, मैं राधा। ये---- बगल वाले घर में ताला लगा है। कहाँ गयी हैं कुछ पता है आपको"?
"नहीं, पता। बस, इतना पता है वह कहीं और शिफ्ट हो गयी है और यह घर ख़ाली कर दिया है", आंटी की वाणी रूखी सी थी।
"शिफ्ट हो गयी हैं"? राधा को धरती घूमती हुई सी लगी। वह अपने पैरों पर खड़ी नहीं हो पा रही थी, गिरने-गिरने को हो रही थी। उसकी हालत देख आंटी भी घबरा गयी थीं, "अरे, क्या हुआ तुमको ? बोलो"?
कुछ पल बाद थोड़ा संयत होकर राधा ने पूछा, "आंटी, वह मेरे लिए कुछ सामान दे गयी थीं क्या"।
"नहीं तो" वह तो मुझे बस घर की चाभी दे गयी थी, मकान मालिक को देने के लिए। तुम्हारी तो दोस्त थी, तुम्हे नहीं बता गयी" ?
आंटी बराबर बोले चली जा रही थीं "क्या हुआ ? कुछ गड़बड़ कर गयी क्या वो? तुमको दोस्ती ही नहीं करनी चाहिए थी ऐसी लड़की से। कपड़े देखती थी उसके। अरे, दोस्ती अपने जैसो के संग की जाती है वह हमारे-तुम्हारे जैसी नहीं थी। पर तुम लोगों को कौन समझाए ------------
आंटी पता नहीं क्या-क्या बोले जा रही थीं और राधा अपने बेजान पैरों को घसीटती वहां से चली आयी थी। जाने कितने कॉल रिया के नंबर पर हो चुके थे, पहले तो बराबर 'नो रिप्लाई' आ रहा था । घर आकर, बिस्तर पर कटे पेड़ की तरह ढह गयी थी राधा । रतन कैसे रिएक्ट करेगा उसकी इस हरकत पर। मन में तूफ़ान मचा हुआ था। किससे अपना दुःख कहे राधा ? डरावने विचारों का तांता लगा था मस्तिष्क में। सबसे बड़ा मानसिक आघात यह था कि ससुराल में सबसे नज़रें कैसे मिलाएगी वह। अम्माजी तो शायद उसे पहले जैसा प्यार फिर कभी न कर पाएं। उनका इतना महंगा खानदानी हार अपनी ज़िद में यहाँ ले आयी थी और उसे ही खो बैठी थी वह।
दिन भर में कितनी ही कॉल की जा चुकी थीं रिया को। पर हर बार ‘नो रिस्पांस’ रहा। कभी जवाब मिलता "यह नंबर उपयोग में नहीं है"। कृपया डायल किये गए नंबर की जांच कर लें"। आखिर शाम के करीब रिया के नंबर से कॉल आयी। राधा ने झपट कर फ़ोन उठाया। रिया ने हमेशा की तरह बड़े प्यार से राधा से बात की। राधा की जान में जान आयी कि चलो सब ठीक हो गया। रिया ने राधा को बताया कि वह मीटिंग में व्यस्त थी, इसलिए राधा के फ़ोन नहीं उठा पा रही थी। उसने यह भी कन्फर्म किया कि वह अब हमेशा के लिए विदेश में ही सेटल होने जा रही है। दूसरे दिन ही उसकी फ्लाइट है। राधा दुखी हो गयी रिया से बिछुड़ने का सोच कर। रिया ने समझाया, कोई बात नहीं राधा, यहाँ तुम्हारी और सहेलियां बन जाएंगी"।
इसके बाद राधा ने पूछा, "मेरा हार कहाँ है रिया दी"?
उधर से जो जवाब आया, उसके लिए राधा किसी भी तरह से प्रस्तुत नहीं थी।
रिया ने कहा, "हार? कौन सा हार राधा"?
राधा जैसे आसमान से गिरी थी, बोली, "अरे मेरा नौरतन का जड़ाऊ हार जो मैंने आपको बिजौली जाते समय दिया था, सात दिन अपने पास रखने के लिए"
"उस दिन तो तुम मेरे पास आयी ही नहीं थीं राधा। गलत ध्यान है तुम्हें"।
कैसी बातें कर रही हैं रिया दी, क्या हुआ है आपको ? भूल गयीं हैं आप"?
अच्छा कोई था वहां, जिसने तुम्हें मुझको हार देते हुए देखा हो"?
नहींssss, देखा तो किसी ने नहीं था"। पर मैंने दिया था”। राधा चिंतित हुई।
तो फिर, तुमने कोई फोटो वग़ैरह खींची थी मुझे हार देते हुए? कुछ लिखा-पढ़ी की थी? कुछ मैसेज या व्हाट्सप वगैरा पर लिख कर भेजा था इस बारे में मुझे ? अच्छा छोडो, रतन को या अपने घर में तो किसी को बताया होगा इस बारे में"?
रिया बन्दूक की गोली की तरह एक के बाद एक सवाल पर सवाल दागे जा रही थी और राधा के पास रिया के हर सवाल का एक ही जवाब था, "नहीं"।
अंत में रिया बोली, “तब तो, तुमने मुझे कभी कोई ज़ेवर नहीं दिया राधा, रखती हूँ, बाय" और फोन कट गया।
इसके बाद राधा फोन मिलाती रही थी और फोन स्विचड ऑफ आता रहा।
दिन भर अन्न का एक दाना भी नहीं गया था राधा के मुँह में। शाम को रतन ऑफिस से आया तब भी राधा बदहवास सी बिस्तर में ही पडी थी। रो-रो कर उसकी आँखें सूज गयी थीं।
रतन ने जैसे ही उससे प्यार से पूछा कि 'हुआ क्या राधा'? जैसे कोई तरंगिणी अपने सारे बाँध तोड़, भरभरा कर बह निकली हो, ऐसे ही राधा बिलख-बिलख कर रो पड़ी थी।
रतन ने राधा को पानी पिलाया, चाय बनायी और ज़िद करके पिलाई। काफी देर बाद ही राधा सम्हल पायी थी।
सारा किस्सा जान, रतन स्तब्ध खड़ा रह गया था। उसे समझ नहीं आ रहा था वह करे तो क्या करे। राधा पर गुस्सा तो बहुत आ रहा था, पर उसका हाल देख, वह उसे ढंग से डाँट भी नहीं पा रहा था। रतन समझ रहा था कि अपने आभूषण प्रेम के वशीभूत हो राधा इतनी बड़ी बेवकूफी कर बैठी थी। थोड़ा सम्हलने पर उसने राधा से प्रश्न पूछने शुरू किये। जो जवाब उसे मिल रहे थे, उनसे परत-दर-परत सच्चाई सामने आती जा रही थी। अंत में दोनों हाथ सिर पर रखे, रतन अवश सा धरती पर ही बैठ गया। तनाव और व्यग्रता से रतन का भी चेहरा मुरझा गया था।
राधा अनुभव कर रही थी कि उससे कितनी बड़ी गलती हुई थी। क्यों वह रतन से छुपा कर हार लॉकर से निकाल लाई ? फिर उससे छुपा कर रिया को भी दे आयी। रिया के बारे में वह जानती ही कितना थी ? बस इतना ही तो कि वह शहर की एक मॉडर्न लड़की है, जो डिवोर्सी है और अकेले रहती है। आंटी तो उसके बारे में क्या-क्या बोल रही थीं। सच में रिया ने कितना गलत किया उसके साथ।
इधर रतन ने जितनी सोची थी, उससे बहुत बड़ी थी समस्या। विचित्र स्थिति थी। किसी दोस्त के पास सहायता के लिए जाए या पुलिस में रपट लिखवाये ? पर कहीं भी कहेगा क्या? कि इतना बड़ा आभूषण घर से गायब हो गया था, पर न चोरी हुई थी, न डाका पड़ा था। घरवाले ने खुद दिया था चोर को। मूर्ख से मूर्ख आदमी भी यही कहेगा कि रिया से अधिक गलती तो राधा की है। उधर घर पर सब क्या बोलेंगे? राधा के बारे में क्या सोचेंगे ? रतन को कोई हल नहीं सूझ रहा था। सिर बुरी तरह से दर्द कर रहा था।
रात हो गयी थी। उसने सिरदर्द की दवाई खाई, रा धा को भी नींद के लिए माइल्ड सी दवा खिलाई। पर उस रात दोनों में से कोई ठीक से नहीं सो पाया। दूसरे दिन रतन ऑफिस नहीं गया। तय किया था कि सुबह उठ कर पहले रिया के पड़ोसियों से जानकारी लेकर रिया को ढूंढने की कोशिश करेंगे । उसके बाद ही भैया और बाबूजी को लेकर पुलिस के पास जाएंगे।
सुबह की चाय पीते हुए दोनों कमरे में चुपचाप बैठे थे, व्यथित और दुखी। तभी बाहर के दरवाज़े की घंटी बजी। रतन देखने गया।
दरवाज़ा खोलते ही रतन आश्चर्यचकित खड़ा रह गया। जिसके नाम-मात्र से, कल से दोनों न जाने कितनी कष्टप्रद स्थिति भोग रहे थे, कितने मंसूबे बनाते रहे थे कि उसे कहाँ-कैसे ढूंढेंगे, वही साक्षात सामने खड़ी थी। हमेशा की तरह अपनी आधुनिक पोशाक में, पर चेहरे पर बला का गाम्भीर्य सिमटा हुआ था।
कितने ही पलों तक रतन कुछ बोल ही नहीं पाया।
अंततः रिया ने ही चुप्पी तोड़ी, "अंदर आने को नहीं कहोगे"?
रतन दरवाज़े का पल्ला छोड़ एक ओर हट गया। रिया अंदर आकर चुपचाप खड़ी रही।
आखिरकार रतन ने कहा, "बैठिये"
फिर उसने राधा को आवाज़ लगाई बाहर आने के लिए। दो बार बुलाने पर भी अंदर से कोई आहट नहीं आयी। आखिरकार रतन स्वयं अंदर गया। तुरंत बिजली की तेज़ी से राधा दौड़ती हुई बाहर आयी और रोते हुए रिया के पास आकर हिस्टीरिआई अंदाज़ में बोली, "रिया दी, रिया दी, आपने ऐसा क्यों किया मेरे साथ ? मैंने क्या गलत किया था आपके साथ"।
प्रत्युत्तर में रिया की सधी हुई आवाज़ आयी "मैंने तुम्हारे साथ कुछ गलत नहीं किया राधा। जो भी गलत किया है तुमने खुद किया है अपने साथ। अब तक तो यह समझ ही चुकी होगी कि तुम्हारा ज़ेवर गायब हो चुके हैं। अब क्या सोचा है”। रतन और राधा अचंभित खड़े थे, कुछ जवाब नहीं था उनके पास।
कुछ पलों के विराम के पश्चात, रिया फिर बोली, "इंडिया छोड़ कर जा रही हूँ हमेशा के लिए। बातचीत तो चल रही थी पहले से, पर अंतिम निर्णय तुम लोगो के जाने के जाने के बाद ही हुआ। इसीलिए यह वाला घर भी महीना शुरू होने के पहले ही एकदम से ख़ाली करना पड़ा। इसलिए चार दिन के लिए एक होटल में शिफ्ट हो गयी हूँ"।
राधा और रतन बुत की तरह उसकी बात सुन रहे थे। रिया आगे बोली, "तुम दोनों की तुम्हारी हालत देख कर ही पता चल रहा है कल से आज तक काफी परेशान रहे हो। ज़ाहिर है, जिसका इतना बड़ा नुक़सान हुआ हो, उसका यही हाल होगा। सोचा तो था कि कुछ और समय के बाद ही तुम्हारे पास आऊंगी, पर लगा कि कहीं तुम लोग परेशान होकर अपनी तबियत न खराब कर लो, इसीलिये आज ही आ गयी।
राधा, तुम्हे आज अंतिम सीख देने आयी हूँ। तुमने दो बड़ी ग़लतियाँ की हैं। पहली यह कि तुमने अपने पति पर भरोसा नहीं किया। पति से छुपाकर तुम इतना कीमती हार लॉकर से वापस ले आयी। वह हार तो अनमोल है तुम लोगों के लिए। पैसे देकर भी उसे वापस नहीं पाया जा सकता क्योंकि वह खानदानी है। लालच के वशीभूत होकर तुमने भरोसा किया भी तो पति के बजाय एक बाहरी व्यक्ति पर।
राधा ने प्रतिवाद किया, "बाहरी कहाँ रिया दी? आप तो मेरी पक्की सहेली थीं"।
#radha
रिया रुकी, कुछ देर उसे गहरी नज़रों से देखा फिर बोली, “कल जो हमारी फोन पर बातें हुई थीं, उसके बाद भी तुम मुझे पक्की सहेली सोच रही हो राधा। कितनी भोली हो। तुम मेरे बारे में जानती ही कितना हो। मेरे लिए बहुत आसान था तुम्हारी पोटली लेकर उड़ जाना। राधा जब तुम्हारा पति ही इतना अच्छा है, इतना भरोसे मंद है, तो तुम्हें मुझसे अधिक उस पर विश्वास होना चाहिए। अपने पति का, घरवालों का स्थान कोई नहीं ले सकता।
दूसरी गलती यह कि तुमने इतना कीमती सामान हार मुझे दे तो दिया पर अपने पास इस बात का कोई सबूत नहीं रखा। किसी तीसरे को नहीं पता यह बात। बहुत आसान था मेरे लिए इस बात से मुकर जाना। तुमने तो मुझे कुछ बताने का मौका दिया भी नहीं था। बस, अपनी बात बोल कर चलती बनीं थीं । फिर बिजौली में भी तुमने मेरी बात नहीं सुनी। उलटे मुझे एक और धमाकेदार खबर सुना दी कि रतन को पता ही नहीं है कि तुम्हारे खानदान का इतना भारी हार तुम मुझे दे गयी हो। मैं कल रात को फ्लाइट पकड़ कर आराम से इंडिया से बाहर चली जाती तो तुम लोग क्या कर लेते।
“राधा तुम सिर्फ अपनी बात कह रही थीं, अपने ही सपनो की दुनिया में जी रही थीं, मेरी बात सुनने को तैयार ही नहीं थीं। मेरे पास और कोई रास्ता नहीं बचा था। तुम्हें इस मामले की गंभीरता समझाने के लिए। इसलिए, अंतिम सीख देने के लिए यह सब नाटक करने का मेरा उद्देश्य यही था कि तुम अच्छी तरह से समझ सको और आगे ऐसी गलती न करो।
राधा सिर झुकाये बैठी थी। दोनों आँखों से टप-टप आँसू गिर रहे थे। रतन बग़ल में बैठा था । वह भी व्यथित था। राधा को भी कंधे पर हाथ रख दिलासा दे रहा था और रिया की बातों पर स्वीकारोक्ति में सिर भी हिला रहा था।
रिया ने अपना पर्स खोला, उसमे से राधा की पोटली निकाली और उसे राधा को देते हुए बोली, “लो सम्हालो अपनी पोटली। एक जड़ाऊ हार और दो झुमकियां हैं इसमें। यही था न, देख लो और माफ़ कर दो अपनी रिया दी को”। फिर कल मैं चली ही जाऊंगी, तो इसके बाद जाने फिर कब मिलना हो। हो भी या न हो”।
रो पड़ी राधा, "रिया दी, और शर्मिंदा मत करो" और उठ कर रिया के गले लग गयी थी।
कुछ देर बाद तीनों बैठे रतन की बनायी हुई चाय का आनंद ले रहे थे और राधा मुँह खोले रिया से विदेश के किस्से सुन रही थी।
चाय पीकर रिया जाने के लिए उठ खड़ी हुई थी और राधा और रतन उसे हाथ हिलाकर विदा दे रहे थे।
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यह कहानी बस इतनी ही….. फिर मिलेंगे एक नयी कही अनकही लेकर । आप सब स्वस्थ रहिये, खुश रहिये, धन्यवाद!
लेखिका
नमिता अनुराग
आपसे विनम्र अनुरोध है कि मेरी कहानियाँ मेरे यू-ट्यूब चैनल 'कही अनकही' पर मेरी ही आवाज़ में सुनें। चैनल को आप 'नमिता अनुराग' 'Namita Anurag' के नाम सर्च कर सकते हैं।
मेरा मुख्य उद्देश्य है, मातृ भाषा हिंदी व भारतीय संस्कारों के प्रति रूचि बढ़ाना, व्रत त्योहारों की छोटी, आसान विधियाँ बताना, और उन आम लोगों के प्रयासों को, जो चुपचाप, बिना किसी प्रचार-प्रसार के समाज के लिए कुछ अच्छा, कुछ नया या अलग कर रहे हैं, उनके प्रयासों को समाज के सामने लाना।
WRITER: A A CHOUDHARY
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