घर घर की यही कहानी
मानव एक सामाजिक प्राणी है यह हम सब जानते हैं। यह भी जानते हैं कि सार्थक जीवन जीने के लिए परोक्ष रूप से अपनी हर एक आवश्यकता के लिए उसे समाज पर निर्भर रहना ही पड़ता है। परोक्ष इसलिए कहा क्योंकि उसकी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति भले प्रति समय समाज का कोई प्राणी उसकी सेवा में खड़ा रहकर नहीं कर रहा हो मगर वे सभी वस्तुएँ कहीं न कहीं समाज के आपसी सहयोग से ही उसके पास आती हैं।
वैज्ञानीकरण के इस दौर में आम तौर पर आम दिनचर्या में मानव के तन और मन को अपना जीवन ठीक-ठाक बिताने के लिए किसी दूसरे मानव के प्रत्यक्ष सहयोग या सहायता की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि परोक्ष सहयोग ही इतना बड़ा होता है कि लगभग उसी से काम चल जाता है। हाँ पर हम यदि उतने आधुनीकिकरण में नहीं आए हैं और घरेलु सहायकों की फौज खड़ी नहीं कर सकते तो तो इन सभी कार्यों के लिए भी प्रत्यक्ष रूप से किसी अन्य पर निर्भर हो सकते हैं जैसे भोजन, कपड़े, सफाई आदि।
पुरुष और कामकाजी महिलाओं के दिन का अधिकांश समय घर के बाहर काम के लिए बीतता है और शाम मनोरंजन के नाम पर घरवालों या दोस्तों के साथ बीत जाती है जहाँ लेने और देने का रिवाज काम करता है। कहने का तात्पर्य मैं आपके साथ हूँ तो आप भी मेरे साथ हो। यह कहने में कहीं नहीं आता और अक्सर विचार में भी नहीं आता मगर मूल भाव यही होता है। महिलाओं का दिन घर के काम में निकल जाता है और शामें पति और बच्चों के साथ।
कभी कोई दुःख की घड़ी आती है तो पूरा परिवार एक साथ खड़ा हो जाता है। जीवन में मिली असफलता में भी अक्सर परिचित, दोस्त और परिवारवाले ढाढस बँधाने के लिए तैयार खड़े मिल ही जाते हैं। कड़ी मेहनत के बाद भी अध्ययन, व्यापार, समाज आदि में मिली असफलता की पीड़ा किसी न किसी ने कभी न कभी भोगी होती है इसलिए जो भी इंसान करीबी होता है वह उसे अपने स्तर पर महसूस करके दयालु हो ही जाता है और उसी के परिणामस्वरूप सहानुभूति दिखा ही देता है। इसका एक कारण यह भी है कि पास से केवल सार्थक शब्द ही देने होते हैं, अर्थात कोई शारीरिक कष्ट न के बराबर ही करना होता है। आर्थिक संकट आज भी हमारे यहाँ परिवार का संकट माना जाता है इसलिए उसके भी रास्ते मिल जाते हैं।
असली परेशानी तब आती है जब उपरोक्त कारणों के परिणाम स्वरुप या किसी अन्य कारण से इंसान के जीवन में शारीरिक या मानसिक कष्ट आता है। यह वह दौर है जब उसे सबसे अधिक अपने ही जैसे सामाजिक प्राणी की प्रत्यक्ष रूप से आवश्यकता पड़ती है।
आश्चर्यजनक रूप से परोक्ष सहायताओं को प्रत्यक्ष सहायताओं का आवरण पहनाकर हम गर्व के साथ अपने कर्तव्य की इति श्री कर लेते हैं। जैसे- बड़े से बड़े डॉक्टर को दिखाना, खाना-पीना-दवा-दारु आदि समय पर कर देना, बाहर के लोग मिलने आए तो उनके साथ आकर कुछ देर मरीज के पास बैठ जाना, मगर इस सब क्रियाकलापों में हम एक अति महत्त्वपूर्ण बात भूल जाते हैं और वह यह है कि अब उसे हमारी प्रत्यक्ष आवश्यकता है।
अभी वह भावनात्मक रूप से कमजोर है इसलिए उसे आपके बनाए खाने और महँगी दवाइयों के साथ-साथ उन भावों की आवश्यकता है जो उसे अहसास करवाए कि उसके भीतर की पीड़ा को आप महसूस कर पा रहे हों। वह शरीर और मन के स्तर पर जितना बीमार है उतना ही आप उसकी पीड़ा को महसूस कर पा रहे हों, न उससे थोड़ा कम और न थोड़ा ज्यादा। कहने का तात्पर्य इस दौर में उसे सहानुभूति की नहीं समानुभूति की आवश्यकता होती है। यह महसूस करने की, कि वह उपेक्षित नहीं है।
शरीर और मन की कमजोरी उसे तोड़ देती है। कभी-कभी जब दुर्भाग्य से यह दौर लम्बा चल जाता है तब तो परिस्थितियाँ और भी विकट हो जाती हैं। तब तो उस पर पहाड़ ही टूट पड़ता है जब उसकी तकलीफ को नाटक समझकर या मामूली समझकर बहुत हल्के में लेकर नज़रअंदाज कर दिया जाता है।
दुःख की बात तो यह है कि नज़रअंदाज़ भी इस तरह किया जाता है कि उसे लगे कि उसके बीमार होने से घरवाले उसी की तिमारदारी में लगे हुए हैं। उसके हिस्से का काम करके उसे यह दिखाया जाता है कि उसके लिए कितना कुछ किया जा रहा है। चुंकि उसके बीमार होने से घर का पूरा काम आपके कंधों पर आ गया जिसमें वह हाथ बँटाया करती थी तो वह करके ही उसके लिए अपने दायित्वों की समाप्ति मान ली जाती है।
जी हाँ, मैं घर में रहनेवाली बहू नाम की प्राणी की बात कर रही हूँ। उस प्राणी की, जिसके इर्दगिर्द पूरा परिवार घूमता है, फिर वह कामकाजी हो या गृहिणी। हमारे यहाँ कहा जाता है कि दुनिया में कुछ भी किसी के भरोसे नहीं रुकता। कोई आए या जाए दुनिया ऐसे ही चलती रहती है। कहते भी है जिस लड़की के पिता की मौत हो जाती है, शादी तो उस बेटी की भी हो ही जाती है।
यह उस दुनिया की बात हो रही है जो परोक्ष क्रियाओं से चलती है। जीवन को जीने की आवश्यकताओं का इंतजाम किसी भी तरह हो ही जाता है। आप करोगे तब भी होगा और न करने से भी हो ही जाएगा। मसलन पहले बहू घर का काम कर रही थी तो अब आप कर रहे हो, आप भी यदि नहीं करोगे तो घरेलु सहायिका कर लेगी, वह भी नहीं रख सकते तो पुरुष वर्ग खुद कर लेगा, बाहर से खाना आ जाएगा, कपड़े धोबी के चले जाएँगे आदि आदि।
मगर यदि आपसे भावनात्मक सहारा नहीं मिला तो वह उसे इस समय कोई नहीं दे पायेगा। वह मुश्किल हालातों में अपना वह समय तो निकाल लेगी मगर एक बार जो दिल टूटा उसे जुड़ने में दिन नहीं महीनों लग जाएँगे। परिवार के बड़ों की अपेक्षा होती है कि पूरा घर उनके इर्दगिर्द रहे। कभी वे बीमार हो जाए या और कोई समस्या आ जाए तो उनके कमरे में सब कुछ स्थानांनतरित हो जाए। जैसे- खाना-पीना, गप्पबाजी, मौज-मस्ती आदि। यह वे तब भी कर लेते हैं जब घर के बच्चे या पुरुष वर्ग में कोई बीमार होता है।
पर जब घर की बहू बीमार होती है तो उसके समय का साथी कमरे की सूनी दीवारें, उसका अकेलापन और उसकी शारीरिक पीड़ा होती है। उसे अपनी शारीरिक पीड़ा से इतना कष्ट नहीं पहुँचता जितना उस अकेलेपन से पहुँचता है जो उसे बीमार होने की सजा के रूप में दे दिया जाता है। संयुक्त परिवारों में तो यह तक देखा जाता है कि घर के कुछ सदस्य तो दो-चार दिन तक उसे देखे बिना ही काम चला लेते हैं।
कारण भी तो कितना खूबसूरत है, हम घर के बड़े हैं, हम छोटी-मोटी के कमरे में कैसे जा सकते हैं। साथ में यह भी कि जिसे खाना परोसना है वह तो जा ही रही है, सब जाकर क्या करेंगे। हर कोई ध्यान थोड़ी न रखेगा, एक आदमी रख रहा है न बहुत है।
ध्यान रखियेगा यह बहू अपने मायके में वैसे ही पलकर आई है जैसे आपके घर में आपकी बेटी पल रही है। यह भी वहाँ मामूली चोट से ऐसे ही आसमान सिर पर उठाती थी जैसे आपकी बेटी यहाँ उठाती है। यह सब कुछ आपकी बहू नहीं करती है क्योंकि वह जानती है कि वह बेटी नहीं है बहू है मगर उसके अति दर्द को आज यदि आपने मामूली की तुला पर तोलकर उसे नज़रअंदाज करके समानुभूति तक न ले जाकर सहानुभूति तक सीमित रह गए तो आपस में आई दूरियाँ आपके द्वारा दिए जाने-वाले महँगे उपहारों और उसकी अनुकुलता में उसके साथ बिताये लम्बे अच्छे समय से भी कम नहीं हो पायेगी।
समय पर यदि काम नहीं किया जाए तो उसके मायने न करने के बराबर ही होते हैं। उसके अच्छे दिनों में उसके साथ समय बीताना उस पर कोई परोपकार नहीं है, वह आपस का लेन-देन है। असली मदद या हमदर्दी तो तब है जब तब उसके साथ समय बीताया जाए जब वह भावनात्मक रूप से अपने ही तन और मन से जूझ रही है।
आप यदि बीमार होने का नाटक करते हैं तभी आप सोच सकते हैं कि कोई बीमार होने का नाटक कर रहा है। और एक बार मान भी लिया जाए कि कोई नाटक भी कर रहा है तब भी वह एक-दो दिन के लिए ही कर पायेगा। लम्बे समय के लिए या फिर गर्भवती स्त्री की पीड़ा को न समझकर उसकी उपेक्षा करना कहीं से भी जायज नहीं ठहराया सकता।
पक्ष इसका दूसरा भी होगा, मैं इंकार नहीं कर रही हूँ। किसी एक पक्ष को प्रमुखता से रखने का मतलब कभी यह नहीं होता कि बाकी सारे पक्ष है ही नहीं। वे कुछ समय के लिए मात्र गौण होते हैं और जब उनकी बारी आती है तो उन पर भी प्रमुखता से चर्चा होती है।
कच्ची मिट्टी के रूप में लड़की आपके घर में आती है। आप अपनी उपेक्षाओं, तानों और लापरवाहियों से उसे वह बना देते हो जो वह कभी बनना ही नहीं चाहती थी। ये लापरवाहियाँ कदम-कदम पर झलकती है। तब भी जब घर के हर एक सदस्य की ही नहीं मेहमानों की खाने-पीने की छोटी-छोटी पसंद और आदतों को मुँह जुबानी रट कर रखने वाली सास, बहू को शारीरिक कष्ट पहुँचाने वाले कुछ खाद्य पदार्थों या क्रियाओं को भी याद ही नहीं रख पाती।
मुझे याद नहीं रहा या मैंने सोचा नहीं था ऐसे हो जायेगा, कहकर हर बार पल्ला झाड़ लेती है और साथ में चेहरे पर शिकन भी नहीं आती है कि सच में उनसे कुछ गलत हुआ है। शारीरिक चोट से अधिक मानसिक चोट कष्ट पहुँचाती है और उससे भी अधिक कष्ट अपनों की उपेक्षा पहुँचाती है।
मानकर चलना कि शुरुआती दौर में यह ठीक नहीं किया गया तो एक दौर वह भी आयेगा कि बहुत देर हो चुकी होगी। आप चाहेंगे कि आपकी कोई उपेक्षा न करें पर आपको वही मिलेगा जो आपने दिया है। तब भी जब वह ऐसा करना नहीं चाहेगी क्योंकि वह चाहते हुए भी अनौपचारिक रिश्ता नहीं निभा पायेगी। वह आपकी उतनी ही सेवा करेगी जितनी कर्त्वय के दायरों में उसके हिस्से में आनी चाहिए। वह आपको गर्म खाना खिलायेगी, दवा-दारू करेगी, आपकी हर जरुरत का ध्यान रखेगी मगर उसी तरह से आपके दर्द को महसूस नहीं कर पायेगी जैसे आपने उसके दर्द को महसूस नहीं किया था। तब भी नहीं जब कालांतर में आप अपनी गलतियों को सुधार लोगे।
मजेदार बात तो यह है कि गर्भावस्था के रूप में अक्सर बहुएँ ही पहले सास की तिमारदारी देखती है और फिर वैसी ही बन जाती है जैसा उन्हें बनाना तो नहीं चाहा था मगर अपने क्रिया-कलापों से बना दिया। बीमारी का वक्त छोटा सा होता है मगर जब वह चल रहा होता है तब बहुत लम्बा होता है। यदि हो सके तो उस लम्बे समय को छोटा करने में आप निमित्त बनिए।
अपनी बहू के कमरे में जाना अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न ना बनाए और नहीं उन कार्यों के लिए ही मात्र बहू के पास जाए जो परोक्ष कार्य है, जो आप नहीं करतीं तो और कोई भी कर देता, जैसे- खाना परोसना, पानी देना आदि। उसे पूरा परिवार महसूस करवाए कि वह बीमार है तो वैसे ही बीमार है जैसे घर को कोई और सदस्य होता है और पूरे घर की क्रिया कलाप उसके इर्द-गिर्द होने लगती है। वह अपने मायके में यही देखकर आई है और आपसे भी यही उम्मीद करती है।
निवेदन रहेगा कि जिस पक्ष पर बात हो रही है केवल उससे जुड़े ही कमेंट करें, इसके विपरीत पक्ष की भी बात हम आने वाले समय में अवश्य करेंगे।
Writter: A A CHOUDHARY
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